Sunday, 14 October 2018

जो उतर के ज़ीना ए शाम से

जो उतर के ज़ीना के शाम से,
तेरी चश्म ए ख़ुश में समा गए।
वही जलते बुझते से मेहर ओ माह,
मेरे बाम ओ दर को सजा गए।

ये अजीब खेल है इश्क का,
मैने आप देखा ये मोजज़ा।
वो जो लफ्ज़ मेरे ग़ुमाँ में थे,
वो तेरी ज़ुबाँ पर आ गए।

वो जो गीत तुमने सुना नहीं,
मेरी उम्र भर का रियाज़ था।
मेरे दर्द की थी वो दास्ताँ,
जिसे तुम हंसी में उड़ा गए।

वो चिराग़ ए जाँ कभी जिसकी लौ
ना किसी हवा से निगुँ हुई
तेरी बेवफाई के वसवसे
उसे चुपके चुपके बुझा गए।

वो था चाँद शाम ए विसाल का
के था रूप तेरे जमाल का,
मेरी रूह से मेरी आँख तक
किसी रोश्नी में नहा गए।

ये जो बंदग़ाने नियाज़ हैं
ये तमाम हैं वही लश्करी
जिन्हें ज़िंदग़ी ने अमाँ न दी
तो तेरे हुज़ूर में आ गए।

तेरी बेरूख़ी के द़यार में
मैं हवा के साथ हवा हुआ
तेरे आइने की तलाश में
मेरे ख्वाब चेहरा गँवा गए।

तेरे वसवसों के फिशार में
तेरा शरार ए रंग उजड़ गया,
मेरी ख़्वाहिशों के ग़ुब्बार में
मेरे माह ओ साल वफा गए।

मेरी उम्र से ना मिट सके
मेरे दिल में इतने सवाल थे,
तेरे पास जितने जवाब थे
तेरी इक निग़ाह में आ गए।

जो उतर के ज़ीना ए शाम से
तेरी चश्म ए ख़ुश में समा गए,
वही जलते बुझते से मेहर ओ माँह
मेरे बाम ओ दर को सजा गए।

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